Tuesday, 4 February 2020


ग्लोबल वार्मिंग और मौसम का बदलाव (Global Warming and Climate Change


ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन का विषय शिक्षित समाज पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों मीडिया कर्मियों और कतिपय जनप्रतिनिधियों के बीच धीरे-धीरे चर्चा का मुद्दा बन रहा है। इस विषय की चर्चाओं में जलवायु परिवर्तन की संभावनाओं के मद्देनज़र उसके मानव सभ्यता एवं समस्त जीवधारियों पर संभावित प्रभाव की भी चर्च होने लगी है। पर्यावरणविदों एवं कतिपय वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाये तो अनेक जीवधारियों के जीवन पर असर पड़ेगा और कुछ जीव जन्तुओं का नामोनिशान मिट जायेगा।

वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ने को ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन का कारण माना जाता है। वातावरण की मुख्य ग्रीन हाउस गैसें पानी की भाप, कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन मुख्य हैं। इन गैसों द्वारा सूरज से धरती पर आने वाले रेडियेशन की कुछ मात्रा सोखने के कारण धरती के वातावरण का तापमान बढ़ जाता है। इस तापमान बढ़ने को ग्रीन हाउस गैसों का असर कहते हैं। अवलोकनों से पता चलता है कि वातावरण को कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा में लगातार वृद्धि हो रही है। वातावरण के तापमान में एक डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के बढ़ने के फलस्वरूप लगभग 7 प्रतिशत से अधिक वाष्पीकरण होता है। ‘इंटरगवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेन्ज (आईपीसीसी)’ के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों के प्रभावों से समुद्रों का पानी धीरे-धीरे अम्लीय हो रहा है और मौसमी दुर्घटनाओं में वृद्धि हो रही है।

जीवन शैली में हो रहे बदलावों एवं औद्योगीकरण के कारण कोयले और पेट्रोलियम पदार्थों का उपयोग बढ़ रहा है। इन्हेें जलाने के कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ती है। इसी तरह चावल के खेतों की मिट्टी में ऑक्सीजन विहीन वातावरण में होने वाली सड़ण को जानवरों के पेट में पैदा होने वाली गैसों के कारण मीथेन गैस वातावरण में उत्सर्जित होती है। हार्ड-कोयले की माइनिंग, प्राकृतिक गैस के अन्वेषण तथा परिवहन, जल-मल निपटान (सीवर) संयंत्र एवं नगरीय अपशिष्टों के भूमिगत निपटान के कारण मीथेन एवं अन्य गैसें उत्पन्न होती हैं। समुद्र सहित अन्य जल संरचनाओं से मीथेन का योगदान उल्लेखनीय है। यह योगदान बाढ़ के साथ बह कर आने वाले कार्बनिक उल्लेखनीय है। यह योगदान बाढ़ के साथ बह कर आने वाले कार्बनिक पदार्थों और जल संरचनाओं में पैदा वनस्पतियों के उसकी तली के ऑक्सीजन विहीन वातावरण में सड़ने के कारण होता है।

धरती के इतिहास की समझ रखने वाले भूवैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के भूवैज्ञानिक प्रमाण खोजने का प्रयास किया है। उनको ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन के प्रमाण धरती के जन्म के बाद से, आदमी के धरती पर अस्तित्व में आने के करोड़ों साल पहले से लगातार मिल रहे हैं इसलिये भूवैज्ञानिकों की नजर में ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन की घटना सामान्य है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार धरती पर ग्लेसियल युग (हिमयुग) एवं इन्टरग्लेसियल युग (दो हिमयुगों के बीच का गर्म समय) आते जाते रहते हैं। हिमयुग के दौरान धरती पर तापमान कम हो जाता है, ठंडे इलाकों में बर्फ की चादर और ग्लेसियरों का विस्तार हो जाता है और समुद्र का जलस्तर नीचे उतर जाता है। इन्टरग्लेसियल युग में धरती के तापमान में वृद्धि होती है। तापमान बढ़ने के कारण बर्फ की चादरें पिघलती हैं, हिम नदियाँ पीछे हटती हैं और समुद्र का जलस्तर ऊपर उठता है। जलवायु के इस बदलाव के कारण समर्थ जीव-जन्तु और वनस्पतियाँ बच जाती हैं तथा असमर्थ जीव-जन्तु नष्ट हो जाते हैं। भूवैज्ञानिकों की नजर में ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन को खगोलीय शक्तियाँ नियंत्रित करती हैं। यह प्रकृति का अनवरत चक्र है।

जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता को समझने के लिये बर्फ के सबसे बड़े भंडारों की परिस्थितियों को देखना और समझना होगा। दुनिया में बर्फ के सबसे बड़े भंडार अन्टार्कटिका और ग्रीनलैंड में हैं। इनका पर्यावरण ही दुनिया की जलवायु परिवर्तन का सूचक है। आंकड़े बताते हैं कि हाल के सालों में ग्रीनलैंड का औसत तापमान 5 डिग्री बढ़ा है। यहाँ सन 2006 की तुलना में सन 2007 में लगभग 30 प्रतिशत अधिक बर्फ पिघली है और अन्टार्कटिका में पिछले 10 सालों में बर्फ की चादर के टूटकर समुद्र में गिरने की घटनाओं में 75 प्रतिशत की तेजी आई है। अनुमान है कि यदि ग्रीनलैंड की पूरी बर्फ पिघली तो समुद्र स्तर में 7 मीटर की बढ़ोत्तरी होगी। मालद्वीप, बम्बई जैसे अनेक शहर समुद्र के पानी में डूब जायेंगे। सन 2100 तक 23 डिग्री अक्षांस/देशांस पर स्थित समुद्रों के पानी के तापमान में 03 डिग्री सेन्टीग्रेड की वृद्धि होगी। तापमान की वृद्धि के कारण सन 2080 तक पश्चिमी पैसिफिक महासागर, हिन्दमहासागर, पर्शिया की खाड़ी, मिडिल ईस्ट और वेस्ट इंडीज द्वीप समूहों की कोरल-रीफ के 80 से 100 प्रतिशत तक लुप्त होने का खतरा रहेगा। अम्लीय पानी के असर से ठंडे पानी की कोरल-रीफ और खोल वाले समुद्री जीवों के अस्तित्व को खतरा बढ़ेगा। समुद्र में ऑक्सीजन की कमी वाले क्षेत्रों की संख्या बढ़ रही है। यह संख्या 149 से बढ़कर 200 हो गई है। यह बदलाव सन 2003 से सन 2006 के बीच हुआ है और इस बदलाव के कारण इन क्षेत्रों में मछलियों की पैदावार कम हो चुकी है।

दुनिया की अर्थव्यवस्था पर जलवायु परिवर्तन का असर होगा। अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था में लगभग 20 प्रतिशत की कमी आयेगी। इसके अलावा समुद्र के जलस्तर में बदलाव के कारण लगभग 10 करोड़ लोगों का विस्थापन होगा। सूखे के इलाकों में पाँच गुना वृद्धि होगी और लाखों लोग सूखे के कारण शरणार्थी बनेंगे। हर छठवाँ व्यक्ति जल कष्ट से पीड़ित होगा। जंगली जानवरों के जीवन पर गंभीर खतरा होगा और अनुमान है कि लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियाँ हमेशा-हमेशा के लिये धरती पर से लुप्त होंगी।

गौरतलब है कि धरती पर पिछले 1000 साल तक तापमान स्थिर रहा है। सन 1800 से उसमें तेजी से बदलाव हुये हैं। पिछले 250 सालों में वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड गैस की मात्रा 280 पीपीएम से बढ़कर 379 पीपीएम हो गई है। सन 2007 में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा 430 पीपीएम पाई गई है। क्योटो में हुई अन्तरराष्ट्रीय बैठक में लिये फैसलों के कारण सन 2012 तक ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में 5.2 प्रतिशत की कमी करना है। वर्तमान में ग्रीन हाउस गैसों के वायुमंडल में छोड़ने के मामले में एक अमेरिकी लगभग 8150 भारतीयों के बराबर है। क्योटो में ग्रीन हाउस गैसों को कम करने वाले फैसले के बाद यूएसए, कनाडा और आस्ट्रेलिया के गैस उत्सर्जन में बढ़ोत्तरी हुई है। यह बढ़ोत्तरी अमेरिका में 16 प्रतिशत, कनाडा और आस्ट्रेलिया में 25-30 प्रतिशत है। उल्लेखनीय है कि अकेले कनाडा और अमेरिका मिलकर दुनिया की लगभग दो तिहाई मीथेन का उत्सर्जन करते हैं।

सन 2007 में आईपीसीसी ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी चौथी रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट के अनुसार सन 2100 तक कठोर कदम उठाने की हालत में वातावरण में संभावित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा 420 पीपीएम, कुछ कदम उठाने की हालत में 600 पीपीएम और कोई कदम नहीं उठाने की हालत में 1,250 पीपीएम संभावित है। जिसके कारण तापमान में वृद्धि क्रमशः 0.6, 1.8 डिग्री और 3.4 डिग्री सेन्टीग्रेड संभावित है।

डी. टेरा और पीटरसन (1939) ने भारत में हिमयुग का अध्ययन किया है। इन वैज्ञानिकों को सिन्ध और कश्मीर की लिदर घाटी में चार से पाँच हिमयुगों एवं उनके बीच तीन इन्टरग्लेसियल युगों की मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं। इन प्रमाणों के अनुसार कश्मीर में सबसे पहला हिमयुग लगभग दस लाख साल पहले और दूसरा हिमयुग लगभग पाँच लाख साल पहले आया। इन दोनों हिमयुगों के बीच का इन्टरग्लेसियल युग लगभग आठ लाख साल पहले हुआ है। तीसरा और चौथा हिमयुग क्रमशः 03 लाख और 1.5 लाख साल पहले रिकार्ड किया गया था। पाँचवां हिमयुग लगभग तीस हजार साल पहले वजूद में था। उसका अन्त लगभग पन्द्रह हजार साल पहले हुआ है। वर्तमान इन्टरग्लेसियल कालखंड गर्म जलवायु का है। आज से 3000 से 4000 साल पहले थार मरुस्थल की जलवायु आर्द्र थी। राजस्थान के जंगलों में हाथी पाये जाते थे। लगभग 2500 साल पहले हुये जलवायु परिवर्तनों ने थार को मरुस्थल में बदला है।

पूना के अध्ययन दल ने भारत में बरसात के बदलाव का अनुमान लगाया है। इन अनुमानों के अनुसार भारत के बारह प्रतिशत इलाके में बरसात की मात्रा में बढ़ोत्तरी हुई है। लगभग दस प्रतिशत इलाके में स्थिति यथावत है। भारत के समुद्र तटीय पूर्वी मैदानों, पूर्वी घाट, उत्तर की पहाड़ियों, पश्चिमी घाट और उत्तर पूर्व की पहाड़ियों में बरसात का औसत सुधरा है। महाराष्ट्र के अधिकांश भाग में बरसात की मात्रा में बदलाव नहीं है। लद्दाख और नार्थ ईस्ट को छोड़कर बाकी भारत के 68 प्रतिशत भूभाग में बरसात घटी है। शेष 10 प्रतिशत इलाके के बारे में आंकड़े अनुपलब्ध हैं। मुम्बई की 2005 की, बाड़मेर तथा गुजरात की 2006 की और बिहार की 2008 की अति वर्षा तथा बिहार और असम की 2006 की अल्प वर्षा जलवायु परिवर्तन का परिणाम लगता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार पूरी दुनिया में पेट्रोल और डीजल चालित वाहनों की फ्यूल-दक्षता बढ़ानी होगी। वाहनों में बायोडीजल और एथीनाल का अधिकाधिक उपयोग करना होगा। सौर ऊर्जा का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा। उल्लेखनीय है कि राजस्थान का अकेला बाड़मेर ब्लॉक बिजली की सारी जरूरतें पूरी करने में सक्षम है। इसी तरह वाहनों में सोलर बैटरी का उपयोग बढ़ाना होगा और बिजली बनाने में विन्ड इनर्जी का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा। सुरक्षित विकास व्यवस्था द्वारा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा का सन्तुलन बनाकर वातावरण में मौजूद कार्बन को सोखने के लिये वनीकरण करना होगा। मीथेन गैस से बिजली बनाने के लिये प्रयास करना होगा। पूरी दुनिया को बिना कार्बन के ऊर्जा पैदा करने वाली अर्थनीति अपनानी होगी और अमीर देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करना होगा तथा गरीब देशों को विकास के लिये ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में छूट देना होगा।

अन्त में, पिछले सभी जलवायु परिवर्तन खगोलीय शक्तियों से नियंत्रित थे। वर्तमान जलवायु परिवर्तन में औद्योगीकरण और मानवीय हस्तक्षेप जुड़ गये हैं। पिछले और वर्तमान युग के जलवायु परिवर्तन में यही बुनियाद फर्क है जिसके कारण, जलवायु परिवर्तन की अन्तिम परिणति क्या होती तो कहना कठिन है पर यह तय है कि भाग्यशाली प्रजातियाँ ही धरती पर राज करेंगी।

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